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प्रेम होना,
प्रेम में होना या
प्रेममय होना ही नहीं,
प्रेम का सलीक़ा न होना भी है।
प्रेम सहानुभूति नहीं है,
समानुभूति है।
प्रेम, रोते हुए को रूमाल देना नहीं,
अपने आँसू से उसके आँसू पोछ देना है।
प्रेम तर्क नहीं है।
फूस को सिलकर अंगारों का पैरहन,
और सेहरा की रेत पर पर उंगली से,
समंदर के नाम की वसीयत बना देना है।
प्रेम सत्य ही नहीं,
आधी नींद में झकझोरे किसी बेसुध के मुख से
कृष्ण की मां का नाम यशोदा,
और पत्नी का नाम राधा सुन लेना है।
प्रेम करुणा ही नहीं,
एक रुपए की माचिस में कैद,
पूरे के पूरे शहर के गुरूर को,
सुबह तक ख़ाक कर देने का जुनून भी है।
प्रेम वेदना ही नहीं है ,
पांच रुपए के तम्बाकू को
पांच सौ के नोट में लपेटकर
कश मारकर धुँआ कर देने की उजड्डई भी है।
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